मौलबी

सच कहूँ तो यह नाम ‘मौलबी’ किसी कल्पना की उपज नहीं बल्कि जीवन के एक वास्तविक पात्र से इत्तेफ़ाक़ रखता है| मेरी तरफ से पूरा प्रयास रहेगा कि कलम के माध्यम से आप लोगों को कुछ हद तक उनसे रूबरू करा सकूं |

यह कोई १९८० दशक के मध्य की बात होगी, शहर था बनारस (वाराणसी)| पिताजी उत्तर प्रदेश सरकार में कार्यरत थे, बनारस से ही शिक्षा प्राप्त करने की वजह से उन्हें भी इस शहर से काफी लगाव था| इसी वजह से बचपन का एक हिस्सा बनारस में ही बीता|

बचपन वाकई बड़ा ही स्वर्णिम होता है| अनेक प्रकार की मिश्रित यादें! किस्से, कहानिया और खिलौने, शायद ही इनसे किसी का बाल्यकाल अछूता होगा | मैं उन खुशनसीब लोगों में से हूँगा जिसके पास इनकी अच्छी यादें हैं | और उन्ही यादों में एक नाम है ‘मौलबी’, अक्सर याद आता है |

हमारी गली के नुक्कड़ पर एक खिलौनों की दुकान हुआ करती थी| रंग बिरंगे खिलौने! शायद ही कोई ऐसा बच्चा होगा जिसे ये आकर्षित न करते हों, लिहाजा वो दुकान हम बच्चों के आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र थी| वास्तव में वो कोई दूकान भी नहीं थी, सड़क के किनारे पर दीवार से लगा हुआ एक छोटा सा और ज़मीन से थोड़ा ऊँचा एक कोना था| यदि आप को छोटे शहरों के जीवन का अनुभव होगा तो निश्चित रूप से आप को इस प्रकार की दुकानों का स्मरण होगा| दीवार पर एक कपडा या चादर कुछ कीलों की मदद से खिंचा हुआ होता था, और नीचे की ज़मीन पर एक रंगीन बरसाती बिछी होती| छोटी पिनों, तारों और पत्थर के छोटे टुकड़ों की मदद से खिलौने दीवार और फर्श पर कुछ इस नायाब तरीके से सजाये होते कि उस प्रकार से आकर्षित करने वाली खिलौने की दुकान मैंने यहाँ तक कि महानगरों में भी नहीं देखी | उन दिनों जहाँ तक हमारी कल्पना जाती थी उन सभी प्रकार के खिलौने उस छोटी सी दुकान में मौजूद हुआ करते थे | जानवर, पंछी, छोटी-छोटी गाड़ियां, हेलीकाप्टर, गुड्डे-गुड़ियाँ, रसोई के छोटे छोटे सामान और अनेकों ऐसी चीजें जिनका उल्लेख करना निश्चित रूप से आसान नहीं होगा|

सड़क की इस दुकान को चलाने का दारोमदार जिस शख्स को जाता था उन्ही को हम बच्चे ‘मौलबी’ कहा करते थे| निश्चित रूप से उनका वास्तविक नाम मौलबी नहीं रहा होगा, पर इस पुकार नाम मौलबी के रहस्य से मैं बिलकुल भी अवगत नहीं हूँ| यूँ तो वे उम्र में हमसे बहुत ही बड़े थे पर उन दिनों हम मौलबी नाम से ही उनको सम्बोधित किया करते थे| अब सोचता हूँ तो लगता है कि कम से कम अपने उस पुकार नाम ‘मौलबी’ के साथ ‘चाचा’ शब्द के हक़दार वे जरूर थे|

बरहाल, मौलबी देखने में ६५-७० साल के लगते थे| सच कहूं तो उनकी उम्र का अंदाज़ा लगाना मेरे लिए आसान नहीं है, पर यदि मैं अपने अनुभवों और उनकी परिस्थिति का सामंजस्य बना कर सोचूँ तो वे ५० साल से ज्यादा के बिलकुल भी नहीं रहे होंगे | उम्र से ज्यादा दिखने का कारण शायद किसी संवेदनशील व्यक्ति को बताने की आवश्यक नहीं है |

दुबला पतला शरीर, गेहुंआ रंग और तकरीबन ५ फ़ीट और ६ या ७ इंच उचाई, कुछ इसी प्रकार की कद काठी थी उनकी | सिर पर मुसलमानी टोपी, पतला चेहरा, चिपके हुए गाल और छोटी छोटी धंसी हुई आंखे, आँखों पर धातु से बना गोल आकार का नज़र का चश्मा और चेहरे पर थोड़ी सी सफ़ेद रंग की कम सघन दाढ़ी| आम तौर पर वैसी दाढ़ी हाजी लोग रखा करते हैं (हाजी: हज होकर आये मुस्लिम समुदाय के लोग) पर उनकी स्थिति जो याद आती है मैं पूर्ण आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि वे कभी हज नहीं गए रहे होंगे |

वेश-भूषा की बात करें तो टांगों से चिपका पैजामा, कमर से थोड़ा नीचे तक का पूरी आस्तीन वाला कुर्ता जो कि ज़रूर कभी सफ़ेद रंग का रहा होगा पर अब मटमैला हो चला था, कुर्ते के ऊपर बिना आस्तीन वाली गाढ़े रंग की चुस्त सदरी (जैकेट)| पैरों में चमड़े की काली चप्पल हुआ करती थी| चप्पल नये तो बिल्कुल भी नहीं थे, पर बाकी के कपड़ों की तुलना में चप्पलों की हालत काफी दुरुस्त थी, और उसका एक कारण शायद बाजू की तीन चार दुकान छोड़ कर बैठने वाला मोची रहा होगा| दुकान पर ग्राहक न होने की स्थिति में दोनों को कई बार साथ-साथ देखने को मिलता था|

हालांकि मैंने उन्हें कभी पान खाते देखा नहीं था पर ज़बान और मुहं की लाली स्पष्ट दर्शाती थी कि वे पान ज़रूर खाते रहे होंगे| वैसे भी बनारस में रहने वाला यदि पान न खाये तो यह अपने आप में एक अचरज की ही बात होगी| थोड़ी भारी पर धीमी आवृति की आवाज़, जल्दी जल्दी बोलना, त्वरित प्रतिक्रिया और बस अपने काम से काम रखना यही उनके काम करने का कुछ विशेष अंदाज़ था| बेचते तो वे खिलौने थे और एक प्रकार से पूरा दिन बच्चों के बीच ही रहते पर कभी मैनें उन्हें हँसते-मुस्कुराते नहीं देखा था | निश्चित रूप से कुछ व्यक्तिगत वजह रही होगी |

उस तरफ से जब भी गुजरते निगाह मौलबी की दुकान पर खुद बखुद चली जाती| चूँकि वे खिलौने बहुत महंगे नहीं होते थे इसलिए यदा-कदा आग्रह करने पर पिताजी एक आध खिलौने खरीदने के लिए राजी भी हो जाया करते थे| इस प्रकार से सप्ताह-दस दिन पर कम से कम एक बार मौलबी की दुकान पर जाना जरूर होता था | कभी खुद के लिए कुछ खरीदने जाते या फिर मोहल्ले के किसी साथी के विशेष सलाहकार बनकर| खिलौने खरीदना तो निश्चित रूप से ही बहुत रोमांचक हुआ करता था पर उस दुकान पर महज खड़े रह कर उन भांति-भांति के रंग बिरंगे खिलौनों को निहारना भी कम रोमांचक नहीं होता था|

इस प्रकार से मौलबी भी बाल्यकाल का एक प्रमुख हिस्सा थे| बाल्यकाल अच्छा व्यतीत हो रहा था | यह शायद १९८० दशक का आखिरी साल रहा होगा, पिताजी का तबादला उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे शहर, गोरखपुर में हो गया| बचपना अपने आप में एक अनूठी अवस्था होता है, हर एक परिस्थिति उत्सव के जैसी प्रतीत होती है| हमारा सामान एक बड़ी गाड़ी में रख कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाने के लिए व्यवस्थित किया जा रहा था| हमे बस अपने-अपने बस्ते और किताब-कापियों को एक गत्ते में रखने की जिम्मेदारी दी गयी थी| थोड़ी उदासी थी पर मन उत्साहित भी था, नया शहर, नया घर, नया स्कूल और न जाने क्या क्या..| सच कहूँ तो उस दिन मौलबी का ख्याल बिलकुल भी नहीं आया|

हम अब दूसरे शहर में आ चुके थे, नया शहर नये लोग! साल १९९२ में एक बार फिर से पिता जी के साथ बनारस जाने का मौका मिला| शहर में दुबारा जाना अपने आप में अत्यंत रोमांचक था| मुझे अच्छी तरह से याद है लौटते समय मैंने मौलबी की दुकान से कुछ खिलौने ख़रीदे थे| शायद वो किशोरावस्था के प्रारम्भ का प्रभाव रहा होगा, मेरे अंदर शहर और मौलबी दोनों के प्रति कोई भावना नहीं थी| मेरे लिए वो खिलौने सबसे ज्यादा मत्वपूर्ण थे|

उसके बाद काफी समय तक बनारस जाने का अवसर नहीं मिला| ठीक से याद तो नहीं पर साल १९९८ या १९९९ में काफी समय के उपरांत एक बार फिर से किसी प्रवेश परीक्षा के लिए बनारस जाने को हुआ| इस समय तक गंगा जी के घाट और बाजार में घूमना ज्यादा आनंद का अनुभव देता था| निश्चित रूप से बाल्यकाल से किशोरावस्था में प्रवेश करने पर प्राथमिकताएं बदल जाती हैं| पर अचानक एक दिन सड़क के उस कोने पर निगाह गई, जहाँ मौलबी के खिलौनों कि दुकान हुआ करती थी, वो कोना खाली था!

अनौपचारिक रूप से पता करने पर मौलबी के आखिर वक़्त के बारे में कुछ जानने को मिला था| मौलबी एक दैनिक श्रमिक थे, और किसी भी दैनिक श्रमिक की आय और व्यापार उसके स्वास्थ्य के साथ जटिलता से जुड़ा होता है| लिहाजा उनके जीवन के आखिरी समय के बारे में अनुमान लगाना किसी के लिए भी बहुत कठिन नहीं होगा| दैनिक श्रमिक का जीवन तभी तक सामान्य दिखता है जब तक कोई बीमारी या विषम परिथिति दस्तक नहीं देती है| वे अस्पताल जाते तो हैं पर अधिकांशतः कभी लौट कर नहीं आते| शायद यह उनकी नहीं कहीं न कहीं हमारी और हमारी सरकारों की भी विफलता है| आज़ादी के ७३ वर्षों के बाद भी हमारे लिए मानव जीवन और संवेदनाओं का कोई विशेष मोल नहीं है|

परन्तु मैं अपनी इस कथा को यहीं पर विराम देना चाहूंगा| लिखने के लिए अभी भी बहुत कुछ है लेकिन शब्दों के खेल में संवेदनाएं कहीं विलुप्त न हो जाये इस लिए मैं यहीं पर लेखनी को विराम देता हूँ| और मेरा मानना है कि साहित्य में पाठक को अपनी संवेदनाओं के अनुसार चिंतन करने का अवसर अवश्य मिलना चाहिये…शेष आप और आप की संवेदनाओं पर छोड़ता हूँ|

पर हाँ एक आखिरी बात!… जब कभी अपने बेटे के लिये खिलौने खरीदने जाता हूँ या फिर किसी बच्चे को खिलौने खरीदते देखता हूँ तो मौलबी और उनकी दुकान का स्मरण पुनः जीवंत हो उठता है |

– आशीष त्रिपाठी
०९ मई २०२०
बेंगलुरु

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