साइकिल रेस (वृतांत)

किसी दिन अपने बेटे को साइकिल चलाने के कुछ गुणों कि व्याख्या करते वक्त अचानक ही मेरे मुँह से निकल गया कि तुममे थोड़ी परिपक्वता आ जाये तो मैं तुम्हे अगली चनौती दूंगा| वह बड़ी उत्सुकता के साथ पूँछ उठा, वह क्या पापा, मेरे मुँह से निकल गया ‘हैंडल छोड़ कर साइकिल प्रैक्टिस और उसके बाद रेस’| छोटे बच्चों को इस प्रकार की चीजें बहुत ही लुभावनी लगा करती हैं और शायद वही कारण रहा होगा उसने मुझसे इस विशेष प्रकार की रेस के विषय में काफी जानकारी हासिल की|

हम पिता और पुत्र अपने संवादों को लेकर थोड़ा बदनाम भी हैं | पत्नी का कहना है कि मुझे उसके साथ इतना मित्रवत नहीं होना चाहिए| किसी दिन बेटे के मुख से निकल गया कि मैं और पापा तो बड़े अच्छे दोस्त हैं, और मुझे अपरोक्ष रूप से सुनने को मिला कि “इनके जैसा दोस्त हो जाये तो जीवन में दुश्मन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी” | निश्चित रूप से पत्नी की चिंता भी जायज़ ही होगी| ऐसे अनेको आरोप हैं मुझपर , कभी उसके बारे में चर्चा जरूर करूँगा|

बरहाल उस संवाद ने एक वास्तविक घटना की याद ताज़ा कर दी जिसे मैं आप लोगों की सामने प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा | मेरी तरफ से पूरा प्रयास रहेगा की उस घटना को यथारूप में आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ|

हम स्नातक समय से ८ मित्र हैं जो कुछ दशकों से संपर्क में हैं और यह वृतांत उन्ही में से कुछ लोगों पर आधारित है| कुछ लोगों से आज रूबरू करा देता हूँ जो शेष रह जाते हैं किसी अन्य वृतांत की माध्यम से उनसे फिर कभी आप लोगों की मुलाकात करात हूँ |

वृतांत के वास्तविक किरदारों के नाम निम्नलिखित हैं:
अमित सिंह, डी.के. यादव, आनंद सिंह, अवनीश त्रिपाठी (यदा कदा ही उस रेस में भाग लिया करते थे), आशीष त्रिपाठी और अनिमेष सिंह

यह अपने स्नातक कक्षा के दूसरे या तीसरे वर्ष की बात है| इन दिनों हमने एक विशेष प्रकार की साइकिल रेस की खोज की थी| इस रेस के नियम सामान्य रेस से थोड़े अलग हुआ करते थे | और उसी विविधता की वजह यह रेस चुनौतीपूर्ण और रोमांचक होने के साथ ही साथ थोड़ी जोखिमपूर्ण भी हो जाया करती थी|

तो बात करते हैं उस नियम की जो उस रेस को सामान्य से अलग करता था| वह अजीब नियम था, बिना साइकिल की हैंडल को पकडे हुए इस रेस में भागीदारी लेना और समापन रेखा तक पहुँचाना|

आम तौर पर गणित और भौतिक विज्ञान की अतिरिक्त कक्षाओं के बाद (टूशन क्लास) घर जाने के मार्ग में हम इस विशेष रेस को सम्पादित किया करते थे| उस अतिरिक्त कक्षा में कुछ अतिरिक्त सीखने से ज्यादा वहां पर होने वाली अड्डेबाजी हमें बहुत आकर्षित किया करती थी|

यह कोई साल २००१ नवंबर या दिसम्बर मास की बात रही होगी| आम तौर पर उत्तर भारत में नवंबर-दिसंबर तक अच्छी सर्दियाँ शुरू हो जाती है | सर्द मौसम के साथ साथ शीतलहर उस वातावरण को और भी खास एवं शांत बना देता है|

वह भी ऐसी ही एक रात थी, रोजमर्रा की भांति आज शाम भी अतिरिक्त कक्षाओं के समाप्ति के बाद हम उस निश्चित स्थान तक पहुँच चुके थे जहाँ से सामान्यतः रेस प्रारम्भ हुआ करती थी| उस स्थान तक पहुँचने से १ – २ मिनट पूर्व ही वह खिलाडी जो की उस दिन रेस में भाग लेने में इच्छुक होता वह अपनी भागीदारी से सबको अवगत करा दिया करता था| और फिर वह रेस प्रारम्भ हो जाया करती थी| ठीक से याद तो नहीं पर हाँ हममे से ही कोई एक उस रेस को १-२-३ की गिनती के द्वारा प्रारम्भ किया करता था | बरहाल रेस प्रारम्भ हो चुकी थी हर खिलाडी रेस के नियमों का पालन करते हुए (बिना हैंडल पकडे हुए) समापन रेखा की तरफ बढ़ा जा रहा था| आम तौर यह रेस लगभग २ मिनट के समय में सम्पादित हो जाया करती थी| और इस अवधी में हम उत्साहवर्धन और दूसरे खिलाडी की स्थिति का जायजा लेने की लिए जोर जोर से चिल्लाया भी करते थे|

उस दिन भी सब कुछ इसी प्रकार से चल रहा था| रेस के प्रारम्भ होने के थोड़ी देर बाद हम दो खिलाडी, अमित और आशीष लगभग एक दूसरे के सामानांतर ही थे, हमारी गति तेज़ होने के कारन हम एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से आगे निकल गए| उस व्यक्ति ने सर पर एक गोल टोपी लगा रखी थी और साथ में डंडी पर एक छोटा बच्चा भी बैठा था| आप लोग शायद आप समझ ही गए होंगे वह किसी दूसरे समुदाय के रहे होंगे| बरहाल मैं और अमित लगभग बराबरी में ही थे, और समापन रेखा की तरफ द्रुत गति से बढे जा रहे थे | इसी बीच हमे किसी के गिरने की आवाज़ आयी | सर्दियों के दिन में सन्नाटा जल्दी हो जाया करता था ,और वह रेस ट्रैक लगभग ३०० मीटर ही लम्बा रहा होगा लिहाजा हमे किसी के गिरने की आवाज़ स्पष्ट रूप से सुनाई दी थी |

उस आवाज़ से हम लोगों ने यह अनुमान लगाया कि वह टोपी वाला व्यक्ति गिर गया होगा |हम दोनों आपस में कुछ चर्चा कर हँसे भी थे | उम्र के उस दौर में शायद परिपक्वता का थोड़ा आभाव होता है और शायद इसी लिए हम दोनों ने ऐसा किया होगा (इस संवेदनहीन आचरण के लिए मैं छमा भी चाहूंगा) | हम शायद समापन रेखा पर पहुँच चुके थे या नहीं ठीक से याद नहीं, पर हाँ कौन गिरा उसको जानने के लिए हम उत्सुक थे | रेस के सभी भागीदार उपस्थित थे सिर्फ डी. के. यादव का पता नहीं चल रहा था, अब हमने अपनी साइकिल वापस घुमा ली थी| थोड़ी दूर चलने के उपरांत हमे डी. के. यादव भी मिल गए, हममे से ही किसी ने पूछा क्या हुआ, धीमीआवृति में डी.के. की तरफ से आवाज़ आयी ‘डी. के. यादव गिर गया था’ थोड़ी चोटें भी आयी थी लेकिन ईश्वर कि कृपा से वह घाव गंभीर नहीं थे |

ऐसे ही अनेकों किस्से हैं, हम अब भी जब कभी मिलते हैं तो चर्चा अवश्य करते हैं |

स्कूल कॉलेज और मित्रों का साथ सभी की लिए बड़ा ही स्वर्णिम होता है | व्यासयिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने हम सभी को एक दूसरे से काफी दूर कर दिया पर अच्छी बात यह है कि हम सभी अभी तक संपर्क में हैं और यदा कदा हमे मिलने के सौभाग्य भी प्राप्त हो जाया करता है | इन मुलाकातों में भी डी.के. बहुत ही सक्रिय रहा करते हैं|

बस अभी के लिए इतना ही, कहानियां काफी हैं बस कलमबद्ध करने में थोड़ा वक़्त लगता है | कोशिश करूँगा अगली बार जल्द ही एक नयी कहानी की साथ आप लोगों से रूबरू हो सकूँ|

तब तक ख्याल रखिये और सुरक्षित रहिये !

  • आशीष त्रिपाठी
    २९ नवंबर २०२०, बेंगलुरु

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