हरी (एक वृतांत)!

प्रारम्भ में ही मैं एक बात आप लोगों को बता देना चाहूंगा | इस वृतांत को लिखने में मैंने अपने पिताजी से थोड़ी मदद ली है खासकर वाक्यों के निर्माण और शब्दों के चुनाव के लिए| 

मुझे लगता था कि जिस प्रकार का जीवन मेरा है वैसे ही दुनिया के सभी बच्चों का होगा| और शायद ऐसा लगने का कारण हमारे शहरी जीवन का वातावरण होगा जिसमे हमारे आस पास के लोग लगभग हमारी जैसे ही आर्थिक व्यस्था वाले होते हैं|

एक साल दशहरे की छुट्टियों  में हम सभी लोग वाराणसी और पुरी की यात्रा पर गए हुए थे वहां पर जिस प्रकार का दृश्य देखने को मिला मुझे पता चल गया कि ऐसा बिलकुल भी नहीं है| हम श्री जगन्नाथपुरी मंदिर के पास ही ठहरे थे | मंदिर जाने के रास्ते में एक छोटी सी चाय की दूकान थी जिसमे एक छोटा बच्चा काम करता दिखा | शायद मेरी ही उम्र का रहा होगा| देखने में दुबला पतला और उसका रंग थोड़ा सांवला था | वही सभी लोगों की टेबल तक चाय और नाश्ते के कप और थालियां पहुंचाता| उसने पैरों में पुरानी टूटी हुई चप्पलें और शरीर पर थोड़े गंदे और जीर्ण-शीर्ण दिखने वाले कपडे पहन रखे थे| हम उम्र होने के नाते बार-बार मेरी निगाह उसकी तरफ ही जाती| एक बार उसे देखता तो दूसरी तरफ अपने कपड़ों और जूतों को निहारता| मुझे उसके लिए बहुत दुःख हो रहा था|

कहीं मैंने अपनी ही किताब में पढ़ रखा था बाल श्रम अपराध है| मैंने पिताजी से कई बार आग्रह किया कि दूकान के मालिक से इसके विषय में बात करें| मेरे कई बार आग्रह करने पर वह गए भी| दूकानदार ने उसके बारे में बड़े विस्तार से बताया, उसने बताया वह बच्चा उसी के गावं का है| उसका पिता शहर में रिक्शा चलाया करता था, लगभग ३ वर्ष पूर्व किसी बीमारी ने उसकी जान ले ली| इसके घर पर एक माँ के अलावा एक छोटी बहन भी है| पिता की मृत्यु के बाद परिवार के पास आय का कोई साधन नहीं था| दूकान के मालिक ने बताया एक बार वह किसी कारण से गावं गया था उसने देखा इस परिवार के पास खाने तक के लिए कुछ भी नहीं था| दूकानदार ने कहा, ‘साहब मैं भी छोटा ही आदमी हूँ’ मेरी भी अपनी मजबूरियाँ हैं| मुझे लगा यदि इस बच्चे को मैं अपने साथ लेते चलूँ तो कम उसे खाने को तो जरूर मिल जायेगा साथ ही साथ हर माह थोड़े पैसे भी दे दिया करूँगा जिससे माँ और छोटी बहन का भी गुजारा हो जाएग| पता नहीं वह सच बोल रहा था या झूठ पर जिस प्रेम और लगाव से वह बच्चा दूकानदार को चाचा कह सम्बोधित करता था और जिस प्रेम और अपनेपन के साथ वह दूकानदार उस बच्चे को निर्देश देता देख कर लगता था वह सच ही बोल रहा था|

उस बच्चे का नाम हरी था| लौटने के रास्ते भर मैं ‘हरी’ के बारे में ही सोचता रहा| मुझे लगा कि मेरे और उसमें बस इतना फर्क है कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जहाँ मुझे सारी सुविधाएँ और पढ़ने का अवसर मिला हुआ है| माता पिता हमेशा एक बात कहा करते थे कि हमारे पास जो कुछ भी है हमे उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद् करना चाहिए और उसकी सराहना भी करनी चाहिए| सच कहूँ तो उनकी इस छोटी सी बात का मतलब मुझे उस दिन समझ में आया| शायद परिस्थितिया अनुकूल होती  तो हरी और उसके जैसे अनेकों बच्चे बहुत बेहतर कर सकते|

मेरे अंदर इस प्रकार के लोगों के लिए संवेदनाएं बढ़ गयी हैं| मेरी सोच में बड़ा बदलाव आया है| मुझे पढ़ने-लिखने का यह  जो अवसर मिला हुआ है उसकी सार्थकता तभी है यदि मैं जीवन में हरी और उसके जैसे ही परिस्थितियों से विवश बच्चों कि लिए कुछ कर सकूँ|

अरिजीत त्रिपाठी

५-ए

विबग्योर येलहंका, बेंगलुरु

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