नुक्कड़ वाली चाय की दुकान! 

नुक्कड़ वाली वो चाय की दुकान बहुत याद आती है,
दोस्तों के साथ गुज़ारी हर वो शाम बहुत याद आती है|

एक वक़्त था जब दिन में कई बार मिला करते थे,
राजनीती और रोज़गार पर तो चर्चे हज़ार हुआ करते थे|

अब कई बार महीने गुज़र जाते हैं पर कोई बात नहीं होती, मिलते भी हैं वो वाली बात नहीं होती|

उन दिनों चाय भी सुरूर लाती थी, कुछ तो नशा वो ज़रूर लाती थी|
अब शायद वैसी चाय नहीं बनती, या फिर पुराने दोस्तों के बिना वो बात नहीं बनती|

मैनें तो वैसी ही एक दुकान फिर से ढूंढ निकाली है, कुछ वैसी ही बेंच और वैसी ही प्याली है|

उसी दुकान पर अक्सर चला जाता हूँ, वहीँ से कुछ पुराने दोस्तों को फोन मिलता हूँ,
कुछ तो ऐसे हैं, जो फ़ोन भी नहीं उठाते, पूंछो तो कहते हैं कि वक़्त ही नहीं पाते हैं |

वक़्त की तो हमसे भी कुछ खास नहीं यारी है,कुछ तो कहते हैं कि अपना भी शनि थोड़ा भारी है|

वो (वक़्त) तो हमसे भी रंगदारी मांगता है, कभी-कभी तो लगता है कि वो मुझसे मेरी खुद्दारी मांगता है|

पर मैं तो अब भी वक़्त-बेवक़्त वक़्त से उलझ जाता हूँ,
ज्यादातर तो वो अपनी ही मनवाता, पर कभी-कभी मैं उससे अपनी भी मनवाता हूँ|

लेकिन सच कहूँ तो पुराने दोस्तों की याद बहुत आती है, जब भी वो कांच वाली प्याली खनखनाती है|

इन दिनों दोस्तों की लिस्ट में एक नया नाम मिलाया है, इस बार ११ साल के बेटे को ही दोस्त बनाया है|

कॉलेज वाले दिनों की तरह हम देर तक बतियाते हैं, बेवजह हँसते हैं और बेवजह खिलखिलाते हैं|

मैनें पत्नी से भी पूछा, तुम ग्रुप की तीसरी मस्कटियर क्यों नहीं बन जाती,
वो कहती है, मुझे तुम दोनों की बातें समझ नहीं आती|

बातों ही बातों में अगली कथा का शीर्षक भी बताता हूँ , ‘सुनो यार पापा’ इसी नाम से बुलाता है |
हम तो यारी निभाते हैं, देखते हैं वो कितनी निभाता है|

लेकिन सच कहूँ तो पुराने दोस्तों की याद बहुत आती है,
जब भी वो कांच वाली प्याली खनखनाती है|

– आशीष त्रिपाठी 

बेंगलुरु, ३० दिसंबर २०२१

Vijayadashmi

Period: Pushya Nakshatra, Treta Yuga
Place: Ayodhya

Background

All the preparations for the coronation ceremony of Lord Shri Rama were completed. The coronation ceremony was being conducted successfully in the presence of gurus, sages and dignitaries. It was just the wearing the crown was left for Shri Rama.

All the dignitaries present in the meeting were waiting for the King Dasharatha. King Dasharatha had himself gone to take Queen Kaikeyi from her room.

Queen Kaikeyi had many qualities that included the knowledge of weapons and scriptures as well. In the battle of Gods and Asuras, Devraj Indra had urged King Dasharatha to fight on behalf of the gods. Queen Kaikeyi as well had joined the war along with King Dasharatha. Queen Kaikeyi protected the life of King Dasharatha. Pleased with this, King Dasharatha gave two promises to Queen Kaikeyi, which the queen had kept for the future.

Today, Queen Kaikeyi urged for the fulfillment of both the promises. First, Ayodhya’s kingdom for Bharat and second, 14 years of exile for Rama.

King Dasharatha, after listening to these demands of Queen Kaikeyi, fell on the ground in an unconscious state.

Main Point:

On the other hand Mahadev Shiv and Goddess Parvati were watching this scene of Ayodhya on the Kailash(Himalayas).

Parvati (to Mahadev Shiva): Lord, what is this?
Where Narayana himself is present, how can there be greed and attachment..?

In Tretayuga, Narayana (Lord Vishnu) himself had incarnated as Rama and in Satyuga as Lord Krishna.

Mahadev Shiva (to Mother Parvati): Parvati, Narayana is presently in the human form.

Human life is full of complexities, inequalities and challenges. Even if he is Narayana himself, he has to go through these difficulties.

That is why he himself incarnated in human form and wanted to make humans aware of it.

Conclusion

Difficulties are the part of human life and plays a major role in building a unique personality and future.

Time is the most powerful thing, if you and your loved ones are healthy, enjoy it like a celebration, everything else can be lost and recovered.

Accept the discomfort in life as an opportunity to learn new skills.

May the blessings of Lord Mahadev be with everyone……Wish you and your loved ones a very Happy Ram Navami.

Ashish Tripathi

Gorakhpur, 15 October 2021

विजयदशमी

काल: पुक्ष्य नक्षत्र, त्रेता युग

स्थान: अयोध्या

पृष्ठभूमि:

प्रभु श्रीराम के राज्याभिषेक की समस्त तैयारियां पूर्ण हो चुकी थी| गुरु, ऋषियों और गणमान्य सभापतियों की उपस्थिति में राज्याभिषेक की विधि सकुशल संपन्न हो रही थी| रघुनन्दन को मात्र मुकुट धारण करना शेष था|

सभा में उपस्थित सभी गणमान्य लोग राजा दशरथ की प्रतीक्षा कर रहे थे| कुछ समय पूर्व ही वे रानी कैकेयी को लेने के लिए स्वयं उनके कक्ष में गए थे|

रानी कैकेयी के तमाम गुणों में शस्त्र और शास्त्र की विद्या भी शामिल थी| एक बार देवताओं और असुरों के संग्राम में देवराज इन्द्र ने राजा दशरथ को देवताओं की ओर से युद्ध के लिए आग्रह किया था| उस समय रानी कैकेयी भी राजा दशरथ के साथ युद्ध में सम्मिलित हुई थीं| रानी कैकेयी नें राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा भी की थी| उसी से प्रसन्न होकर राजा दशरथ नें रानी कैकेयी को दो वचन दिए थे, जिसे रानी ने भविष्य के लिए सुरक्षित रखा था|

आज रानी कैकेयी ने उन्हीं दोनों वचनों की पूर्ति के लिए आग्रह किया| प्रथम, भरत के लिए अयोध्या का सिंघासन और दूसरा, राम को १४ वर्षों का वनवास|

अयोध्या नरेश दशरथ रानी कैकेयी की इन मांगों को सुनने के पश्चात अचेत अवस्था में भूमि पर गिरे पड़े थे|

मुख्य बिंदु:

उधर कैलाश (हिमालय) पर्वत पर महादेव शिव और देवी पार्वती अयोध्या के इस दृश्य को देख रहे थे|

पार्वती (महादेव शिव से) : प्रभु, यह क्या है?
जहां नारायण स्वयं उपस्थित हैं, वहां लोभ और मोह कैसे..?

त्रेतायुग में नारायण (भगवान विष्णु) स्वयं रघुनन्दन श्रीराम एवं सतयुग में कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे|

महादेव शिव (माता पार्वती से): पार्वती, नारायण इस समय मनाव अवतार में हैं|

मानव जीवन जटिलताओं, विषमताओं और चुनौतिओं से परिपूर्ण है| वह स्वयं नारायण ही क्यों न हों उन्हें इन कठिनाइयों से गुजरना ही होगा|

इसीलिए वे स्वयं मानव रूप में अवतरित होकर मनाव मात्र को इससे अवगत करना चाहते हैं|

निष्कर्ष:

जटिलताएं मानव जीवन का एक हिस्सा हैं और यह एक विशिष्ट व्यक्तित्व और भविष्य के निर्माण का एक प्रमुख अंग भी हैं|

समय सर्वशक्तिशाली है, यदि आप एवं प्रियजन स्वस्थ हैं तो इसका आनंद उत्सव के सामान मनाएं, शेष सब कुछ खोया और पुनः प्राप्त किया जा सकता है|

जीवन में असहजता को एक नया कौशल सीखने के अवसर के रूप में स्वीकार करें|

शेष महादेव की कृपा सबपर बनी रहे…आप और प्रियजनों को विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनायें|

आशीष त्रिपाठी
गोरखपुर, १५ अक्टूबर २०२१

The Ideal Coders

In my professional experience as a Coder (or Software Developer) and a Product Engineering person I’ve meet two kinds of Coders:

1. Who “Starts Without thinking” 😕

These are people who have the least interest in understanding the #client‘s #business for which the #software is being made. They feel it’s just writing the code.

So, straight away they get into writing the code. Some common characteristics of such #developers are:

  • Get stuck soon or write a code that does not solve the purpose. 
  • Write lot’s of code without much thought about how it’s going to be maintained in future. 
  • Sitting on their desks for a longer duration, mostly tensed and into anxiety.

2. Who “Think & Plan Before Starting” (Rare and Preferred) 😃

They try to understand the #business#requirements first and then map it with the #code to be written (or the existing code). 

Some characteristics of such developers are:

  • They write relatively fewer lines of code to achieve the result with minimum bugs. 
  • They write clean code which is easy to maintain.
  • Come on time and go on time (sometimes a little early too) and work in a relaxing manner.

So, if you’re a coder: Where do you see yourself 1 or 2?

हरी (एक वृतांत)!

प्रारम्भ में ही मैं एक बात आप लोगों को बता देना चाहूंगा | इस वृतांत को लिखने में मैंने अपने पिताजी से थोड़ी मदद ली है खासकर वाक्यों के निर्माण और शब्दों के चुनाव के लिए| 

मुझे लगता था कि जिस प्रकार का जीवन मेरा है वैसे ही दुनिया के सभी बच्चों का होगा| और शायद ऐसा लगने का कारण हमारे शहरी जीवन का वातावरण होगा जिसमे हमारे आस पास के लोग लगभग हमारी जैसे ही आर्थिक व्यस्था वाले होते हैं|

एक साल दशहरे की छुट्टियों  में हम सभी लोग वाराणसी और पुरी की यात्रा पर गए हुए थे वहां पर जिस प्रकार का दृश्य देखने को मिला मुझे पता चल गया कि ऐसा बिलकुल भी नहीं है| हम श्री जगन्नाथपुरी मंदिर के पास ही ठहरे थे | मंदिर जाने के रास्ते में एक छोटी सी चाय की दूकान थी जिसमे एक छोटा बच्चा काम करता दिखा | शायद मेरी ही उम्र का रहा होगा| देखने में दुबला पतला और उसका रंग थोड़ा सांवला था | वही सभी लोगों की टेबल तक चाय और नाश्ते के कप और थालियां पहुंचाता| उसने पैरों में पुरानी टूटी हुई चप्पलें और शरीर पर थोड़े गंदे और जीर्ण-शीर्ण दिखने वाले कपडे पहन रखे थे| हम उम्र होने के नाते बार-बार मेरी निगाह उसकी तरफ ही जाती| एक बार उसे देखता तो दूसरी तरफ अपने कपड़ों और जूतों को निहारता| मुझे उसके लिए बहुत दुःख हो रहा था|

कहीं मैंने अपनी ही किताब में पढ़ रखा था बाल श्रम अपराध है| मैंने पिताजी से कई बार आग्रह किया कि दूकान के मालिक से इसके विषय में बात करें| मेरे कई बार आग्रह करने पर वह गए भी| दूकानदार ने उसके बारे में बड़े विस्तार से बताया, उसने बताया वह बच्चा उसी के गावं का है| उसका पिता शहर में रिक्शा चलाया करता था, लगभग ३ वर्ष पूर्व किसी बीमारी ने उसकी जान ले ली| इसके घर पर एक माँ के अलावा एक छोटी बहन भी है| पिता की मृत्यु के बाद परिवार के पास आय का कोई साधन नहीं था| दूकान के मालिक ने बताया एक बार वह किसी कारण से गावं गया था उसने देखा इस परिवार के पास खाने तक के लिए कुछ भी नहीं था| दूकानदार ने कहा, ‘साहब मैं भी छोटा ही आदमी हूँ’ मेरी भी अपनी मजबूरियाँ हैं| मुझे लगा यदि इस बच्चे को मैं अपने साथ लेते चलूँ तो कम उसे खाने को तो जरूर मिल जायेगा साथ ही साथ हर माह थोड़े पैसे भी दे दिया करूँगा जिससे माँ और छोटी बहन का भी गुजारा हो जाएग| पता नहीं वह सच बोल रहा था या झूठ पर जिस प्रेम और लगाव से वह बच्चा दूकानदार को चाचा कह सम्बोधित करता था और जिस प्रेम और अपनेपन के साथ वह दूकानदार उस बच्चे को निर्देश देता देख कर लगता था वह सच ही बोल रहा था|

उस बच्चे का नाम हरी था| लौटने के रास्ते भर मैं ‘हरी’ के बारे में ही सोचता रहा| मुझे लगा कि मेरे और उसमें बस इतना फर्क है कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जहाँ मुझे सारी सुविधाएँ और पढ़ने का अवसर मिला हुआ है| माता पिता हमेशा एक बात कहा करते थे कि हमारे पास जो कुछ भी है हमे उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद् करना चाहिए और उसकी सराहना भी करनी चाहिए| सच कहूँ तो उनकी इस छोटी सी बात का मतलब मुझे उस दिन समझ में आया| शायद परिस्थितिया अनुकूल होती  तो हरी और उसके जैसे अनेकों बच्चे बहुत बेहतर कर सकते|

मेरे अंदर इस प्रकार के लोगों के लिए संवेदनाएं बढ़ गयी हैं| मेरी सोच में बड़ा बदलाव आया है| मुझे पढ़ने-लिखने का यह  जो अवसर मिला हुआ है उसकी सार्थकता तभी है यदि मैं जीवन में हरी और उसके जैसे ही परिस्थितियों से विवश बच्चों कि लिए कुछ कर सकूँ|

अरिजीत त्रिपाठी

५-ए

विबग्योर येलहंका, बेंगलुरु

साइकिल रेस (वृतांत)

किसी दिन अपने बेटे को साइकिल चलाने के कुछ गुणों कि व्याख्या करते वक्त अचानक ही मेरे मुँह से निकल गया कि तुममे थोड़ी परिपक्वता आ जाये तो मैं तुम्हे अगली चनौती दूंगा| वह बड़ी उत्सुकता के साथ पूँछ उठा, वह क्या पापा, मेरे मुँह से निकल गया ‘हैंडल छोड़ कर साइकिल प्रैक्टिस और उसके बाद रेस’| छोटे बच्चों को इस प्रकार की चीजें बहुत ही लुभावनी लगा करती हैं और शायद वही कारण रहा होगा उसने मुझसे इस विशेष प्रकार की रेस के विषय में काफी जानकारी हासिल की|

हम पिता और पुत्र अपने संवादों को लेकर थोड़ा बदनाम भी हैं | पत्नी का कहना है कि मुझे उसके साथ इतना मित्रवत नहीं होना चाहिए| किसी दिन बेटे के मुख से निकल गया कि मैं और पापा तो बड़े अच्छे दोस्त हैं, और मुझे अपरोक्ष रूप से सुनने को मिला कि “इनके जैसा दोस्त हो जाये तो जीवन में दुश्मन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी” | निश्चित रूप से पत्नी की चिंता भी जायज़ ही होगी| ऐसे अनेको आरोप हैं मुझपर , कभी उसके बारे में चर्चा जरूर करूँगा|

बरहाल उस संवाद ने एक वास्तविक घटना की याद ताज़ा कर दी जिसे मैं आप लोगों की सामने प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा | मेरी तरफ से पूरा प्रयास रहेगा की उस घटना को यथारूप में आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ|

हम स्नातक समय से ८ मित्र हैं जो कुछ दशकों से संपर्क में हैं और यह वृतांत उन्ही में से कुछ लोगों पर आधारित है| कुछ लोगों से आज रूबरू करा देता हूँ जो शेष रह जाते हैं किसी अन्य वृतांत की माध्यम से उनसे फिर कभी आप लोगों की मुलाकात करात हूँ |

वृतांत के वास्तविक किरदारों के नाम निम्नलिखित हैं:
अमित सिंह, डी.के. यादव, आनंद सिंह, अवनीश त्रिपाठी (यदा कदा ही उस रेस में भाग लिया करते थे), आशीष त्रिपाठी और अनिमेष सिंह

यह अपने स्नातक कक्षा के दूसरे या तीसरे वर्ष की बात है| इन दिनों हमने एक विशेष प्रकार की साइकिल रेस की खोज की थी| इस रेस के नियम सामान्य रेस से थोड़े अलग हुआ करते थे | और उसी विविधता की वजह यह रेस चुनौतीपूर्ण और रोमांचक होने के साथ ही साथ थोड़ी जोखिमपूर्ण भी हो जाया करती थी|

तो बात करते हैं उस नियम की जो उस रेस को सामान्य से अलग करता था| वह अजीब नियम था, बिना साइकिल की हैंडल को पकडे हुए इस रेस में भागीदारी लेना और समापन रेखा तक पहुँचाना|

आम तौर पर गणित और भौतिक विज्ञान की अतिरिक्त कक्षाओं के बाद (टूशन क्लास) घर जाने के मार्ग में हम इस विशेष रेस को सम्पादित किया करते थे| उस अतिरिक्त कक्षा में कुछ अतिरिक्त सीखने से ज्यादा वहां पर होने वाली अड्डेबाजी हमें बहुत आकर्षित किया करती थी|

यह कोई साल २००१ नवंबर या दिसम्बर मास की बात रही होगी| आम तौर पर उत्तर भारत में नवंबर-दिसंबर तक अच्छी सर्दियाँ शुरू हो जाती है | सर्द मौसम के साथ साथ शीतलहर उस वातावरण को और भी खास एवं शांत बना देता है|

वह भी ऐसी ही एक रात थी, रोजमर्रा की भांति आज शाम भी अतिरिक्त कक्षाओं के समाप्ति के बाद हम उस निश्चित स्थान तक पहुँच चुके थे जहाँ से सामान्यतः रेस प्रारम्भ हुआ करती थी| उस स्थान तक पहुँचने से १ – २ मिनट पूर्व ही वह खिलाडी जो की उस दिन रेस में भाग लेने में इच्छुक होता वह अपनी भागीदारी से सबको अवगत करा दिया करता था| और फिर वह रेस प्रारम्भ हो जाया करती थी| ठीक से याद तो नहीं पर हाँ हममे से ही कोई एक उस रेस को १-२-३ की गिनती के द्वारा प्रारम्भ किया करता था | बरहाल रेस प्रारम्भ हो चुकी थी हर खिलाडी रेस के नियमों का पालन करते हुए (बिना हैंडल पकडे हुए) समापन रेखा की तरफ बढ़ा जा रहा था| आम तौर यह रेस लगभग २ मिनट के समय में सम्पादित हो जाया करती थी| और इस अवधी में हम उत्साहवर्धन और दूसरे खिलाडी की स्थिति का जायजा लेने की लिए जोर जोर से चिल्लाया भी करते थे|

उस दिन भी सब कुछ इसी प्रकार से चल रहा था| रेस के प्रारम्भ होने के थोड़ी देर बाद हम दो खिलाडी, अमित और आशीष लगभग एक दूसरे के सामानांतर ही थे, हमारी गति तेज़ होने के कारन हम एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से आगे निकल गए| उस व्यक्ति ने सर पर एक गोल टोपी लगा रखी थी और साथ में डंडी पर एक छोटा बच्चा भी बैठा था| आप लोग शायद आप समझ ही गए होंगे वह किसी दूसरे समुदाय के रहे होंगे| बरहाल मैं और अमित लगभग बराबरी में ही थे, और समापन रेखा की तरफ द्रुत गति से बढे जा रहे थे | इसी बीच हमे किसी के गिरने की आवाज़ आयी | सर्दियों के दिन में सन्नाटा जल्दी हो जाया करता था ,और वह रेस ट्रैक लगभग ३०० मीटर ही लम्बा रहा होगा लिहाजा हमे किसी के गिरने की आवाज़ स्पष्ट रूप से सुनाई दी थी |

उस आवाज़ से हम लोगों ने यह अनुमान लगाया कि वह टोपी वाला व्यक्ति गिर गया होगा |हम दोनों आपस में कुछ चर्चा कर हँसे भी थे | उम्र के उस दौर में शायद परिपक्वता का थोड़ा आभाव होता है और शायद इसी लिए हम दोनों ने ऐसा किया होगा (इस संवेदनहीन आचरण के लिए मैं छमा भी चाहूंगा) | हम शायद समापन रेखा पर पहुँच चुके थे या नहीं ठीक से याद नहीं, पर हाँ कौन गिरा उसको जानने के लिए हम उत्सुक थे | रेस के सभी भागीदार उपस्थित थे सिर्फ डी. के. यादव का पता नहीं चल रहा था, अब हमने अपनी साइकिल वापस घुमा ली थी| थोड़ी दूर चलने के उपरांत हमे डी. के. यादव भी मिल गए, हममे से ही किसी ने पूछा क्या हुआ, धीमीआवृति में डी.के. की तरफ से आवाज़ आयी ‘डी. के. यादव गिर गया था’ थोड़ी चोटें भी आयी थी लेकिन ईश्वर कि कृपा से वह घाव गंभीर नहीं थे |

ऐसे ही अनेकों किस्से हैं, हम अब भी जब कभी मिलते हैं तो चर्चा अवश्य करते हैं |

स्कूल कॉलेज और मित्रों का साथ सभी की लिए बड़ा ही स्वर्णिम होता है | व्यासयिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने हम सभी को एक दूसरे से काफी दूर कर दिया पर अच्छी बात यह है कि हम सभी अभी तक संपर्क में हैं और यदा कदा हमे मिलने के सौभाग्य भी प्राप्त हो जाया करता है | इन मुलाकातों में भी डी.के. बहुत ही सक्रिय रहा करते हैं|

बस अभी के लिए इतना ही, कहानियां काफी हैं बस कलमबद्ध करने में थोड़ा वक़्त लगता है | कोशिश करूँगा अगली बार जल्द ही एक नयी कहानी की साथ आप लोगों से रूबरू हो सकूँ|

तब तक ख्याल रखिये और सुरक्षित रहिये !

  • आशीष त्रिपाठी
    २९ नवंबर २०२०, बेंगलुरु

Maulabi

Honestly speaking this name ‘Maulabi’ is not any imagination, but it corresponds to a real character in the life. I’ll try my level best to introduce you with him to some extent with the help of pen.

It would have been somewhere middle of the decade 1980s, the city was Banaras (Varanasi). Dad was an employee with in Uttar Pradesh government, because of his education from Banaras, he also had a lot of affection for the city. For this reason, a part of childhood was spent in Banaras.

Childhood is indeed very golden. A variety of mixed memories! Tales, stories, and toys, hardly anyone’s childhood will be untouched by it. I’m among those lucky people who have good memories of them. And in those memories, there is a name ‘Maulbi’, often remembered.

There used to be a toy shop at the corner of our street. Colourful toys! There would be hardly any child whom toys will not attract, so that shop was a major centre of attraction for us children. In fact, it was not even any shop, it was a small corner on the road along the wall side and it was little bit higher than the ground. If you have experience of the life of small towns you would remember such types of shops for sure. A cloth or sheet was drawn on the wall with the help of some nails, and a colourful plastic sheet was laid on the ground below. With the help of small pins, wires and small pieces of stone, toys used to be decorated on the wall and floor in such a unique way that I did not even see a toy store attracting that way. In those days, as far as our imagination goes, all those kind of toys were present in that small shop. Animals, birds, small carts, helicopters, puddles, dolls, kitchen utensils and many other things which are certainly not easy to mention.

The person who used to run this street shop we used to call him ‘Maulbi’. Certainly, his real name may not have been Maulabi, but I am not at all aware of the mystery of this call name Maulabi. Though he was much older than us, but in those days, we used to address him by the name Maulabi. Now, I think that at least he was entitled to the word ‘uncle’ with his call name ‘Maulabi’.

However, age wise Maulbi seemed between 75-80 years. To tell the truth, it is not easy for me to guess his age, but if I think in harmony with my experiences and his situation, he would not have been more than 50 years. Perhaps the reason for looking older than age is not necessary to tell a sensitive person.

He had a lean body, whitish colour and about 5 feet and 4 or 6 inches height, this was the kind of physique he had. A Muslim cap on the head, thin face, glued cheeks and small sunken eyes, round metal eyeglasses on the eyes, and a little white coloured beard. Generally Haji people have beards like that (Haji: the people of the Muslim community who have been to Haj) but remembering his situation, I can say with full confidence that he would never have been to Haj.

Talking about his dressing, the pajamas strapped to the legs, the full sleeved kurta slightly below the waist, which must have been of white colour but now was faded, a sleeveless tight jacket on the kurta. There used to be black colour leather slippers on the feet. The slippers were not new at all, but the condition of the slippers was much better than the rest of the clothes, and one of the reasons could be the cobbler’s shop three or four shops next to his shop. Many times, in the absence of customers both of them were spotted together.

Although I had never seen him eating paan (betel leaf), but the redness of tongue and mouth clearly indicates that he must have been eating paan. Anyway, if a person living in Varanasi does not eat paan (betel leaf), then it will be a surprise in itself. A slightly heavy but slow frequency voice, speaking rapidly, quick response and just keeping up with his work was a special way of doing his work. Though he used to sell the toys, and in a way, he lived among the children all day, but I would’ve hardly seen him smiling. There must have been some personal reason for sure.

While passing that way eyes were automatically gone to his shop. Since those toys were not very expensive so once in a while Dad also used to be agreeing to buy a few toys. In this way, it was necessary to visit the Maulabi’s shop at least once a week or ten days. Sometimes we go to buy something for ourselves or by becoming a special advisor to a friend of the locality. Buying toys was certainly very exciting but looking at those colourful toys just by standing at that shop was no less exciting.

In this way, Maulabi was also a major part of childhood. Childhood was going very well. It would have been the last year of the 1980 decade, Dad was transferred to another city of the state Uttar Pradesh, Gorakhpur. Childhood is a unique state, every situation seems like a celebration. Our luggage was being arranged to be carried from one city to another. We were given the responsibility of keeping our bags and books in one cardboard box. There was a bit of sadness but the mind was excited too, new city, new house, new school and so many things.. Frankly speaking did not even think about Maulabi that day.

We had come to another city now. New city new people. In the year 1992 I once again got the opportunity to go to Benares with my father. It was extremely exciting to visit the city again. I remember well that while returning, I bought some toys from the Maulabi’s shop. Perhaps that would have been the influence of the beginning of adolescence, I had no feelings towards both the city and the Maulabi. Those toys were the most important to me.

After that there was no opportunity to go to Benaras for a long time. Do not remember exactly, but after a long time in the year 1998 or 1999, I once again had to go to Benares for an entrance examination. Till this time walking on the Ghats (Bank) of River Ganga and roaming around the market were more fascinating. Certainly, priorities change from childhood to adolescence. But suddenly one day, I noticed that corner of the street where Maulbi used to have the toy store, that corner was empty.

After finding out informally got to know something about the last days of Maulabi. Maulabi was a daily labourer, and the income and trade of any daily labourers is intricately linked with his health. So, it will not be difficult for anyone to guess the last time of his life. The life of a daily labourers looks normal untill any disease or anomalous situation knocks. They certainly go to the hospital but most of them never come back. Perhaps it is not their failure, it’s the failure of us and our governments. Even after 73 years of independence, we do not have any special value for human life and sensations.

But I would like to stop this story here. There is still much to write, but in the ornamental expression of words, the sensations do not become extinct, so I stop the writing here. And I believe that in literature, the reader must get an opportunity to meditate according to their own emotions and wisdom… I leave the rest to you and your emotions.

But yes, one last thing! … Whenever I go to buy toys for my son or I see a child buying toys, the memory of Maulbi and his shop comes back to life.

Ashish Tripathi
09 May 2020
Bengaluru

ಮೌಲಾಬಿ

‘ಮೌಲಾಬಿ’ ಎಂಬ ಹೆಸರು ಕಾಲ್ಪನಿಕ ವಾದುದಲ್ಲ , ಆದರೆ ಇದು ಜೀವನದ ನಿಜವಾದ ಪಾತ್ರಕ್ಕೆ ಹೋಲುತ್ತದೆ . ಪೆನ್ನಿನ ಸಹಾಯದಿಂದ ಸ್ವಲ್ಪ ಮಟ್ಟಿಗೆ ನಿಮ್ಮನ್ನು ಅವರೊಂದಿಗೆ ಪರಿಚಯಿಸಲು ನಾನು ತಕ್ಕ ಮಟ್ಟಿಗೆ ಪ್ರಯತ್ನಿಸುತ್ತೇನೆ.

ಅದು 1980 ರ ದಶಕದ ಅಸು ಪಾಸಿನ ವಿಷಯ, ಅದೊಂದು ನಗರ್ ಹೆಸರು ಬನಾರಸ್ (ವಾರಣಾಸಿ). ಅಪ್ಪ ಉತ್ತರ ಪ್ರದೇಶ ಸರ್ಕಾರದಲ್ಲಿ ಉದ್ಯೋಗಿಯಾಗಿದ್ದರು, ಅವರು ಬನಾರಸ್ನಲ್ಲಿ ಶಿಕ್ಷಣ ಪಡೆದಿದ್ದರಿಂದ ಅವರಿಗೆ ಬನಾರಸ್ ನಗರದ ಬಗ್ಗೆ ಅಪಾರ್ ಪ್ರೀತಿ ಇತ್ತು. ಇದೆ ಕಾರಣಕ್ಕಾಗಿ, ಬಾಲ್ಯದ ಅರ್ಧ ಭಾಗವನ್ನು ಬನಾರಸ್‌ನಲ್ಲಿ ಕಳೆದರು.

ಬಾಲ್ಯವು ನಿಜಕ್ಕೂ ತುಂಬಾ ಅವಿಸ್ಮರಣೀಯ ವಾಗಿರುತ್ತದೆ. ಅನೇಕ ಪ್ರಕಾರದ ವೈವಿಧ್ಯಮಯ ಮಿಶ್ರ ನೆನಪುಗಳು! ಅನೇಕ ಸಂಗತಿಗಳು, ಕಥೆಗಳು ಮತ್ತು ಆಟಿಕೆಗಳು, ಬಹುಷ್ಯ ಬೇರೆ ಯಾರದೋ ಬಾಲ್ಯವು ಇದಕ್ಕಿಂತ ಅದ್ದ್ಬುಥವಾಗಿರಲುಬಹುದು. ಇಂತಹ ಒಳ್ಳೆಯ ನೆನಪುಗಳನ್ನು ಹೊಂದಿರುವ ಅದೃಷ್ಟವಂತ ಜನರಲ್ಲಿ ನಾನು ಒಬ್ಬ. ಮತ್ತು ಆ ನೆನಪುಗಳಲ್ಲಿ, ‘ಮೌಲ್ಬಿ’ ಎಂಬ ಹೆಸರು ಸದಾ ಹೆಚ್ಚಾಗಿ ನೆನಪಿಸಿಕೊಳ್ಳುತ್ತೇನೆ.

ನಮ್ಮ ಬೀದಿಯ ಮೂಲೆಯಲ್ಲಿ ಆಟಿಕೆ ಅಂಗಡಿಯೊಂದಿರುತ್ತಿತ್ತು . ಅದರಲ್ಲಿರುವ ವರ್ಣರಂಜಿತ ಬಿನ್ನವಿಭಿನ್ನ ಆಟಿಕೆಗಳು! ಬಹುಶ್ಯ ಆ ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ಆಕರ್ಷಿಸದ ಯಾವುದೇ ಮಗು ಅಷ್ಟೇನೂ ಇರಲಿಕ್ಕಿಲ್ಲ, ಆದ್ದರಿಂದ ಅಂಗಡಿಯು ನಮಗೆ ಮಕ್ಕಳ ಆಕರ್ಷಣೆಯ ಪ್ರಮುಖ ಕೇಂದ್ರವಾಗಿತ್ತು. ವಾಸ್ತವವಾಗಿ, ಇದು ಯಾವುದೇ ಅಂಗಡಿಯಾಗಿರಲಿಲ್ಲ, ಅದು ರಸ್ತೆಯ ಬದಿಯಲ್ಲಿ ಗೋಡೆಗೆ ಅಂಟಿಕೊಂಡಿರುವ ಸಣ್ಣ ಮೂಲೆಯಾಗಿತ್ತು ಮತ್ತು ಅದು ನೆಲಕ್ಕಿಂತ ಸ್ವಲ್ಪ ಎತ್ತರದಲ್ಲಿತ್ತು. ಸಣ್ಣ ಪಟ್ಟಣಗಳ ಜೀವನದ ಅನುಭವವನ್ನು ನೀವು ಹೊಂದಿದ್ದರೆ ನೀವು ಅಂತಹ ಅಂಗಡಿಗಳನ್ನು ಖಚಿತವಾಗಿ ನೆನಪಿಸಿಕೊಳ್ಳುತ್ತೀರಿ. ಗೋಡೆಯ ಮೇಲೆ ವಸ್ತ್ರ ಅಥವಾ ಚಾದರನ್ನು
ವೊಳೆಗಳ ಸಹಾಯದಿಂದ ಗೋಡೆಗೆ ತೂಗುಬಿಡಲಾಗಿತ್ತು ಮತ್ತು ಕೆಳಗಿನ ನೆಲದ ಮೇಲೆ ವರ್ಣರಂಜಿತ ಪ್ಲಾಸ್ಟಿಕ್ ಹಾಳೆಯನ್ನು ಹಾಕಲಾಯಿತು. ಸಣ್ಣ ಪಿನ್ಗಳು, ತಂತಿಗಳು ಮತ್ತು ಸಣ್ಣ ಕಲ್ಲಿನ ತುಂಡುಗಳ ಸಹಾಯದಿಂದ, ಗೊಂಬೆಗಳನ್ನು ಗೋಡೆ ಮತ್ತು ನೆಲದ ಮೇಲೆ ಅನನ್ಯ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಅಲಂಕರಿಸಲಾಗುತ್ತಿತ್ತು, ಆಟಿಕೆ ಅಂಗಡಿಯೊಂದನ್ನು ಸಹ ಆ ರೀತಿ ಆಕರ್ಷಿಸುವುದನ್ನು ನಾನು ಎಂದು ನೋಡಿರಲಿಲ್ಲ. ಆ ದಿನಗಳಲ್ಲಿ, ನಮ್ಮ ಕಲ್ಪನೆಯ ಮಟ್ಟಿಗೆ, ಆ ಸಣ್ಣ ಅಂಗಡಿಯಲ್ಲಿ ಎಲ್ಲಾ ರೀತಿಯ ಆಟಿಕೆಗಳು ಇದ್ದವು. ಪ್ರಾಣಿಗಳು, ಪಕ್ಷಿಗಳು, ಸಣ್ಣ ಬಂಡಿಗಳು, ಹೆಲಿಕಾಪ್ಟರ್‌ಗಳು, ಗೊಂಬೆಗಳು, ಅಡಿಗೆ ಪಾತ್ರೆಗಳು ಮತ್ತು ಇನ್ನೂ ಅನೇಕ ಅಂತಹ ವಸ್ತುಗಳು ಮತ್ತು ಅವುಗಳನ್ನು ಉಲ್ಲೇಖಿಸುವುದು ಸುಲಭದ ವಿಷಯವಲ್ಲ.

ಆ ರಸ್ತೆಯ ಬದಿಯಲ್ಲಿ ಅಂಗಡಿಯನ್ನು ನಡೆಸುತ್ತಿದ್ದ ವ್ಯಕ್ತಿಯನ್ನು ನಾವು ಮಕ್ಕಳು ‘ಮೌಲ್ಬಿ ’ಎಂದು ಕರೆಯುತ್ತಿದ್ದೆವು. ನಿಸ್ಸಂಶಯವಾಗಿ, ಅವರ ನಿಜವಾದ ಹೆಸರು ಮೌಲಾಬಿ ಅಲ್ಲದಿರಬಹುದು, ಆದರೆ ಮೌಲಾಬಿ ಎಂಬ ಆ ಹೆಸರಿನ ರಹಸ್ಯದ ಬಗ್ಗೆ ನನಗೆ ಸ್ವಲ್ಪವೂ ತಿಳಿದಿಲ್ಲ. ಅವರು ನಮಗಿಂತಲೂ ದೊಡ್ಡವರಾಗಿದ್ದರು, ಆ ದಿನಗಳಲ್ಲಿ, ನಾವು ಅವರನ್ನು ಮೌಲಾಬಿ ಎಂಬ ಹೆಸರಿನಿಂದಲೇ ಕರಿಯುತಿದ್ದೆವು. ಈಗ ಅನಿಸುತ್ತೆ, ಕನಿಷ್ಠ ಅವರಿಗೆ ‘ಮೌಲಾಬಿ’ ಎಂಬ ಹೆಸರಿನೊಂದಿಗೆ ‘ಚಿಕ್ಕಪ್ಪ’ ಎಂದು ಸರಿಸಿದ್ರೆ ಆ ಪದಕ್ಕೂ ಮತ್ತು ಅವರು ಅದರ ಹಕ್ಕುದಾರರಾಗಿದ್ದರು ಎಂದು ನಾನು ಭಾವಿಸುತ್ತೇನೆ.

ಆದಾಗ್ಯೂ, ನೋಡಲು ಮೌಲ್ಬಿ 75-80 ವರ್ಷ ವಯಸ್ಸಿನವರಂತೆ ಕಾಣುತ್ತಿದ್ದರು. ಸತ್ಯವಾಗಿ ಹೇಳಬೇಕಂದರೆ, ಅವನ ವಯಸ್ಸನ್ನು ಊಹಿಸುವದು ನನಗೆ ಸುಲಭವಲ್ಲ, ಆದರೆ ನನ್ನ ಅನುಭವಗಳು ಮತ್ತು ಅವನ ಪರಿಸ್ಥಿತಿಗೆ ಅನುಗುಣವಾಗಿ ನಾನು ಯೋಚಿಸಿದರೆ, ಅವನು 50 ವಯಸ್ಸಿನವನಿಗಿಂತ ಜಾಸ್ತಿ ವಯಸ್ಸಿನವ ಇರಲಾರ. ಪ್ರಾಯಶಃ ವಯಸ್ಸಿಗೆ ಹೋಲಿಸಿದರೆ ವಯಸ್ಸಾಗಿ ಕಾಣುವ ಕಾರಣ ಸವೆಂದನಶೀಲ ವ್ಯಕ್ತಿಗಳಿಗೆ ಹೇಳುವ ಅಗತ್ಯವಿಲ್ಲ.

ಅವರದು ತೆಳ್ಳನೆಯ ದೇಹ, ಬಿಳಿ ಬಣ್ಣ ಮತ್ತು ಸುಮಾರು 5 ಅಡಿ ಮತ್ತು 4 ರಿಂದ 6 ಇಂಚುಗಳಷ್ಟು ಎತ್ತರವನ್ನು ಹೊಂದಿದ್ದರು, ಈ ರೀತಿಯಾಗಿತ್ತು ಅವರ ಮೈಕಟ್ಟು. ತಲೆಯ ಮೇಲೆ ಮುಸ್ಲಿಂ ಟೋಪಿ, ತೆಳ್ಳಗಿನ ಮುಖ, ಅಂಟಿಕೊಂಡಿರುವ ಕೆನ್ನೆ ಮತ್ತು ಸಣ್ಣ ಮುಳುಗಿದ ಕಣ್ಣುಗಳು, ಕಣ್ಣುಗಳ ಮೇಲೆ ದುಂಡಗಿನ ಲೋಹದ ಕನ್ನಡಕ, ಮತ್ತು ಸ್ವಲ್ಪ ಬಿಳಿ ಬಣ್ಣದ ಗಡ್ಡ. ಸಾಮಾನ್ಯವಾಗಿ ಹಾಜಿ ಜನರಿಗೆ ಆ ರೀತಿಯ ಗಡ್ಡಗಳಿವೆ (ಹಾಜಿ: ಮುಸ್ಲಿಂ ಸಮುದಾಯದ ಜನರು ಹಜ್‌ಗೆ ಹೋಗಿದ್ದಾರೆ) ಆದರೆ ಅವರ ಪರಿಸ್ಥಿತಿಯನ್ನು ನೆನಪಿಸಿಕೊಳ್ಳುತ್ತಾ, ಅವರು ಎಂದಿಗೂ ಹಜ್‌ಗೆ ಹೋಗುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ ಎಂದು ನಾನು ಪೂರ್ಣ ವಿಶ್ವಾಸದಿಂದ ಹೇಳಬಲ್ಲೆ.

ಅವನ ಡ್ರೆಸ್ಸಿಂಗ್ ಬಗ್ಗೆ ಮಾತನಾಡುತ್ತಾ, ಪೈಜಾಮಾಗಳು ಕಾಲುಗಳಿಗೆ ಕಟ್ಟಲ್ಪಟ್ಟವು, ಸೊಂಟದ ಸ್ವಲ್ಪ ಕೆಳಗಿರುವ ಪೂರ್ಣ ತೋಳಿನ ಕುರ್ತಾ, ಅದು ಬಿಳಿ ಬಣ್ಣದ್ದಾಗಿರಬೇಕು ಆದರೆ ಈಗ ಮರೆಯಾಯಿತು, ಕುರ್ತಾದ ಮೇಲೆ ತೋಳಿಲ್ಲದ ಬಿಗಿಯಾದ ಜಾಕೆಟ್. ಕಾಲುಗಳ ಮೇಲೆ ಕಪ್ಪು ಬಣ್ಣದ ಚರ್ಮದ ಚಪ್ಪಲಿಗಳು ಇದ್ದವು. ಚಪ್ಪಲಿಗಳು ಹೊಸತೇನಲ್ಲ, ಆದರೆ ಚಪ್ಪಲಿಗಳ ಸ್ಥಿತಿ ಉಳಿದ ಬಟ್ಟೆಗಳಿಗಿಂತ ಉತ್ತಮವಾಗಿತ್ತು, ಮತ್ತು ಒಂದು ಕಾರಣವೆಂದರೆ ಚಮ್ಮಾರನ ಅಂಗಡಿ ಅವನ ಅಂಗಡಿಯ ಪಕ್ಕದಲ್ಲಿ ಮೂರು ಅಥವಾ ನಾಲ್ಕು ಅಂಗಡಿಗಳು. ಅನೇಕ ಬಾರಿ, ಗ್ರಾಹಕರ ಅನುಪಸ್ಥಿತಿಯಲ್ಲಿ ಇಬ್ಬರೂ ಒಟ್ಟಿಗೆ ಗುರುತಿಸಲ್ಪಟ್ಟರು.

ಅವನು ಪ್ಯಾನ್ (ಬೆಟೆಲ್ ಲೀಫ್) ತಿನ್ನುವುದನ್ನು ನಾನು ನೋಡಿಲ್ಲವಾದರೂ, ನಾಲಿಗೆ ಮತ್ತು ಬಾಯಿಯ ಕೆಂಪು ಬಣ್ಣವು ಅವನು ಪಾನ್ ತಿನ್ನುತ್ತಿರಬೇಕು ಎಂದು ಸ್ಪಷ್ಟವಾಗಿ ಸೂಚಿಸುತ್ತದೆ. ಹೇಗಾದರೂ, ವಾರಣಾಸಿಯಲ್ಲಿ ವಾಸಿಸುವ ವ್ಯಕ್ತಿಯು ಪ್ಯಾನ್ (ಬೆಟೆಲ್ ಲೀಫ್) ತಿನ್ನುವುದಿಲ್ಲವಾದರೆ, ಅದು ಸ್ವತಃ ಆಶ್ಚರ್ಯವನ್ನುಂಟು ಮಾಡುತ್ತದೆ. ಸ್ವಲ್ಪ ಭಾರವಾದ ಆದರೆ ನಿಧಾನ ಆವರ್ತನ ಧ್ವನಿ, ವೇಗವಾಗಿ ಮಾತನಾಡುವುದು, ತ್ವರಿತ ಪ್ರತಿಕ್ರಿಯೆ ಮತ್ತು ಅವನ ಕೆಲಸವನ್ನು ಮುಂದುವರಿಸುವುದು ಅವನ ಕೆಲಸವನ್ನು ಮಾಡುವ ವಿಶೇಷ ವಿಧಾನವಾಗಿದೆ. ಅವನು ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ಮಾರುತ್ತಿದ್ದರೂ, ಒಂದು ರೀತಿಯಲ್ಲಿ, ಅವನು ದಿನವಿಡೀ ಮಕ್ಕಳ ನಡುವೆ ವಾಸಿಸುತ್ತಿದ್ದನು, ಆದರೆ ನಾನು ಅವನನ್ನು ನಗುತ್ತಿರುವದನ್ನು ನೋಡಲಿಲ್ಲ. ಖಚಿತವಾಗಿ ಕೆಲವು ವೈಯಕ್ತಿಕ ಕಾರಣಗಳು ಇದ್ದಿರಬೇಕು.

ಆ ದಾರಿಯಲ್ಲಿ ಹಾದುಹೋಗುವಾಗ ಕಣ್ಣುಗಳು ಸ್ವಯಂಚಾಲಿತವಾಗಿ ಅವನ ಅಂಗಡಿಗೆ ಹೋದವು. ಆ ಆಟಿಕೆಗಳು ತುಂಬಾ ದುಬಾರಿಯಲ್ಲದ ಕಾರಣ, ಒಮ್ಮೆ ಅಪ್ಪ ಕೂಡ ಕೆಲವು ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ಖರೀದಿಸಲು ಒಪ್ಪುತ್ತಿದ್ದರು. ಈ ರೀತಿಯಾಗಿ, ವಾರಕ್ಕೆ ಒಮ್ಮೆಯಾದರೂ ಅಥವಾ ಹತ್ತು ದಿನಗಳಾದರೂ ಮೌಲಾಬಿಯ ಅಂಗಡಿಗೆ ಭೇಟಿ ನೀಡುವುದು ಅಗತ್ಯವಾಗಿತ್ತು. ಕೆಲವೊಮ್ಮೆ ನಾವು ನಮಗಾಗಿ ಏನನ್ನಾದರೂ ಖರೀದಿಸಲು ಹೋಗುತ್ತೇವೆ ಅಥವಾ ಪ್ರದೇಶದ ಸ್ನೇಹಿತರಿಗೆ ವಿಶೇಷ ಸಲಹೆಗಾರರಾಗುತ್ತೇವೆ. ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ಖರೀದಿಸುವುದು ನಿಸ್ಸಂಶಯವಾಗಿ ಬಹಳ ರೋಮಾಂಚನಕಾರಿಯಾಗಿದೆ ಆದರೆ ಆ ಅಂಗಡಿಯಲ್ಲಿ ನಿಂತು ಆ ವರ್ಣರಂಜಿತ ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ನೋಡುವುದು ಕಡಿಮೆ ರೋಮಾಂಚನಕಾರಿಯಾಗಿರಲಿಲ್ಲ.

ಈ ರೀತಿಯಾಗಿ, ಮೌಲಾಬಿ ಬಾಲ್ಯದ ಪ್ರಮುಖ ಭಾಗವಾಗಿತ್ತು. ಬಾಲ್ಯವು ತುಂಬಾ ಚೆನ್ನಾಗಿ ನಡೆಯುತ್ತಿತ್ತು. ಇದು 1980 ರ ದಶಕದ ಕೊನೆಯ ವರ್ಷವಾಗುತ್ತಿತ್ತು, ಅಪ್ಪನನ್ನು ಗೋರಖ್‌ಪುರದ ಉತ್ತರ ಪ್ರದೇಶದ ಮತ್ತೊಂದು ನಗರಕ್ಕೆ ವರ್ಗಾಯಿಸಲಾಯಿತು. ಬಾಲ್ಯವು ಒಂದು ವಿಶಿಷ್ಟ ಸ್ಥಿತಿ, ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಸನ್ನಿವೇಶವೂ ಒಂದು ಆಚರಣೆಯಂತೆ ತೋರುತ್ತದೆ. ನಮ್ಮ ಸಾಮಾನುಗಳನ್ನು ಒಂದು ನಗರದಿಂದ ಮತ್ತೊಂದು ನಗರಕ್ಕೆ ಕೊಂಡೊಯ್ಯಲು ವ್ಯವಸ್ಥೆ ಮಾಡಲಾಗುತ್ತಿತ್ತು. ನಮ್ಮ ಚೀಲಗಳು ಮತ್ತು ಪುಸ್ತಕಗಳನ್ನು ಒಂದೇ ರಟ್ಟಿನ ಪೆಟ್ಟಿಗೆಯಲ್ಲಿ ಇಡುವ ಜವಾಬ್ದಾರಿಯನ್ನು ನಮಗೆ ನೀಡಲಾಯಿತು. ಸ್ವಲ್ಪ ದುಃಖವಿತ್ತು ಆದರೆ ಮನಸ್ಸು ಕೂಡ ಸಂಭ್ರಮಿಸಿತು, ಹೊಸ ನಗರ, ಹೊಸ ಮನೆ, ಹೊಸ ಶಾಲೆ ಮತ್ತು ಅನೇಕ ವಿಷಯಗಳು .. ಸ್ಪಷ್ಟವಾಗಿ ಹೇಳುವುದಾದರೆ ಆ ದಿನ ಮೌಲಾಬಿಯ ಬಗ್ಗೆ ಕೂಡ ಯೋಚಿಸಲಿಲ್ಲ.

ನಾವು ಈಗ ಬೇರೆ ನಗರಕ್ಕೆ ಬಂದಿದ್ದೆವು. ಹೊಸ ನಗರ ಹೊಸ ಜನರು. 1992 ರಲ್ಲಿ ನನ್ನ ತಂದೆಯೊಂದಿಗೆ ಬೆನಾರಸ್‌ಗೆ ಹೋಗಲು ನನಗೆ ಮತ್ತೊಮ್ಮೆ ಅವಕಾಶ ಸಿಕ್ಕಿತು. ಮತ್ತೆ ನಗರಕ್ಕೆ ಭೇಟಿ ನೀಡುವುದು ಅತ್ಯಂತ ರೋಮಾಂಚನಕಾರಿಯಾಗಿತ್ತು. ಹಿಂದಿರುಗುವಾಗ, ನಾನು ಮೌಲಾಬಿಯ ಅಂಗಡಿಯಿಂದ ಕೆಲವು ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ಖರೀದಿಸಿದೆ ಎಂದು ನನಗೆ ಚೆನ್ನಾಗಿ ನೆನಪಿದೆ. ಬಹುಶಃ ಅದು ಹದಿಹರೆಯದ ಆರಂಭದ ಪ್ರಭಾವವಾಗಿರಬಹುದು, ನಗರ ಮತ್ತು ಮೌಲಾಬಿ ಎರಡರ ಬಗ್ಗೆಯೂ ನನಗೆ ಯಾವುದೇ ಭಾವನೆ ಇರಲಿಲ್ಲ. ಆ ಆಟಿಕೆಗಳು ನನಗೆ ಅತ್ಯಂತ ಮುಖ್ಯವಾದವು.

ಅದರ ನಂತರ ಬೆನಾರಸ್‌ಗೆ ದೀರ್ಘಕಾಲ ಹೋಗಲು ಯಾವುದೇ ಅವಕಾಶವಿರಲಿಲ್ಲ. ನಿಖರವಾಗಿ ನೆನಪಿಲ್ಲ, ಆದರೆ 1998 ಅಥವಾ 1999 ರಲ್ಲಿ ಬಹಳ ಸಮಯದ ನಂತರ, ನಾನು ಮತ್ತೊಮ್ಮೆ ಪ್ರವೇಶ ಪರೀಕ್ಷೆಗೆ ಬೆನಾರಸ್‌ಗೆ ಹೋಗಬೇಕಾಯಿತು. ಈ ಸಮಯದವರೆಗೆ ಗಂಗಾ ನದಿಯ ಘಾಟ್ಸ್ (ಬ್ಯಾಂಕ್) ನಲ್ಲಿ ನಡೆದು ಮಾರುಕಟ್ಟೆಯ ಸುತ್ತಲೂ ತಿರುಗಾಡುವುದು ಹೆಚ್ಚು ಆಕರ್ಷಕವಾಗಿತ್ತು. ನಿಸ್ಸಂಶಯವಾಗಿ, ಆದ್ಯತೆಗಳು ಬಾಲ್ಯದಿಂದ ಹದಿಹರೆಯದವರೆಗೆ ಬದಲಾಗುತ್ತವೆ. ಆದರೆ ಇದ್ದಕ್ಕಿದ್ದಂತೆ ಒಂದು ದಿನ, ಮೌಲ್ಬಿ ಆಟಿಕೆ ಅಂಗಡಿಯನ್ನು ಹೊಂದಿದ್ದ ಬೀದಿಯ ಆ ಮೂಲೆಯಲ್ಲಿ, ಆ ಮೂಲೆಯು ಖಾಲಿಯಾಗಿರುವುದನ್ನು ನಾನು ಗಮನಿಸಿದೆ.

ಅನೌಪಚಾರಿಕವಾಗಿ ಕಂಡುಕೊಂಡ ನಂತರ ಮೌಲಾಬಿಯ ಕೊನೆಯ ದಿನಗಳ ಬಗ್ಗೆ ಏನಾದರೂ ತಿಳಿದುಕೊಂಡೆ. ಮೌಲಾಬಿ ದೈನಂದಿನ ಕಾರ್ಮಿಕರಾಗಿದ್ದರು, ಮತ್ತು ಯಾವುದೇ ದೈನಂದಿನ ಕಾರ್ಮಿಕರ ಆದಾಯ ಮತ್ತು ವ್ಯಾಪಾರವು ಅವರ ಆರೋಗ್ಯದೊಂದಿಗೆ ಸಂಕೀರ್ಣ ಸಂಬಂಧವನ್ನು ಹೊಂದಿದೆ. ಆದ್ದರಿಂದ, ಅವನ ಜೀವನದ ಕೊನೆಯ ಸಮಯವನ್ನು ಯಾರಿಗೂ to ಹಿಸುವುದು ಕಷ್ಟವಾಗುವುದಿಲ್ಲ. ಯಾವುದೇ ಕಾರ್ಮಿಕ ಅಥವಾ ಅಸಂಗತ ಪರಿಸ್ಥಿತಿಯು ಬಡಿದುಕೊಳ್ಳುವುದರಿಂದ ದೈನಂದಿನ ಕಾರ್ಮಿಕರ ಜೀವನವು ಸಾಮಾನ್ಯವಾಗಿದೆ. ಅವರು ಖಂಡಿತವಾಗಿಯೂ ಆಸ್ಪತ್ರೆಗೆ ಹೋಗುತ್ತಾರೆ ಆದರೆ ಅವರಲ್ಲಿ ಹೆಚ್ಚಿನವರು ಹಿಂತಿರುಗುವುದಿಲ್ಲ. ಬಹುಶಃ ಅದು ಅವರ ವೈಫಲ್ಯವಲ್ಲ, ಅದು ನಮ್ಮ ಮತ್ತು ನಮ್ಮ ಸರ್ಕಾರಗಳ ವೈಫಲ್ಯ. ಸ್ವಾತಂತ್ರ್ಯ ಬಂದ 73 ವರ್ಷಗಳ ನಂತರವೂ ಮಾನವ ಜೀವನ ಮತ್ತು ಸಂವೇದನೆಗಳಿಗೆ ನಮಗೆ ಯಾವುದೇ ವಿಶೇಷ ಮೌಲ್ಯವಿಲ್ಲ.

ಆದರೆ ನಾನು ಈ ಕಥೆಯನ್ನು ಇಲ್ಲಿ ನಿಲ್ಲಿಸಲು ಬಯಸುತ್ತೇನೆ. ಬರೆಯಲು ಇನ್ನೂ ಸಾಕಷ್ಟು ಇದೆ, ಆದರೆ ಪದಗಳ ಅಲಂಕಾರಿಕ ಅಭಿವ್ಯಕ್ತಿಯಲ್ಲಿ, ಸಂವೇದನೆಗಳು ಅಳಿದುಹೋಗುವುದಿಲ್ಲ, ಆದ್ದರಿಂದ ನಾನು ಇಲ್ಲಿ ಬರವಣಿಗೆಯನ್ನು ನಿಲ್ಲಿಸುತ್ತೇನೆ. ಮತ್ತು ಸಾಹಿತ್ಯದಲ್ಲಿ, ಓದುಗರಿಗೆ ತಮ್ಮದೇ ಆದ ಭಾವನೆಗಳು ಮತ್ತು ಬುದ್ಧಿವಂತಿಕೆಗೆ ಅನುಗುಣವಾಗಿ ಧ್ಯಾನ ಮಾಡುವ ಅವಕಾಶ ಸಿಗಬೇಕು ಎಂದು ನಾನು ನಂಬುತ್ತೇನೆ… ಉಳಿದದ್ದನ್ನು ನಾನು ನಿಮಗೆ ಮತ್ತು ನಿಮ್ಮ ಭಾವನೆಗಳಿಗೆ ಬಿಡುತ್ತೇನೆ.

ಆದರೆ ಹೌದು, ಒಂದು ಕೊನೆಯ ವಿಷಯ! … ನಾನು ನನ್ನ ಮಗನಿಗೆ ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ಖರೀದಿಸಲು ಹೋದಾಗ ಅಥವಾ ಆಟಿಕೆಗಳನ್ನು ಖರೀದಿಸುವ ಮಗುವನ್ನು ನೋಡಿದಾಗಲೆಲ್ಲಾ, ಮೌಲ್ಬಿ ಮತ್ತು ಅವನ ಅಂಗಡಿಯ ನೆನಪು ಮತ್ತೆ ಜೀವಕ್ಕೆ ಬರುತ್ತದೆ.

ಆಶಿಶ್ ತ್ರಿಪಾಠಿ
09 ಮೇ 2020
ಬೆಂಗಳೂರು

मौलबी

सच कहूँ तो यह नाम ‘मौलबी’ किसी कल्पना की उपज नहीं बल्कि जीवन के एक वास्तविक पात्र से इत्तेफ़ाक़ रखता है| मेरी तरफ से पूरा प्रयास रहेगा कि कलम के माध्यम से आप लोगों को कुछ हद तक उनसे रूबरू करा सकूं |

यह कोई १९८० दशक के मध्य की बात होगी, शहर था बनारस (वाराणसी)| पिताजी उत्तर प्रदेश सरकार में कार्यरत थे, बनारस से ही शिक्षा प्राप्त करने की वजह से उन्हें भी इस शहर से काफी लगाव था| इसी वजह से बचपन का एक हिस्सा बनारस में ही बीता|

बचपन वाकई बड़ा ही स्वर्णिम होता है| अनेक प्रकार की मिश्रित यादें! किस्से, कहानिया और खिलौने, शायद ही इनसे किसी का बाल्यकाल अछूता होगा | मैं उन खुशनसीब लोगों में से हूँगा जिसके पास इनकी अच्छी यादें हैं | और उन्ही यादों में एक नाम है ‘मौलबी’, अक्सर याद आता है |

हमारी गली के नुक्कड़ पर एक खिलौनों की दुकान हुआ करती थी| रंग बिरंगे खिलौने! शायद ही कोई ऐसा बच्चा होगा जिसे ये आकर्षित न करते हों, लिहाजा वो दुकान हम बच्चों के आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र थी| वास्तव में वो कोई दूकान भी नहीं थी, सड़क के किनारे पर दीवार से लगा हुआ एक छोटा सा और ज़मीन से थोड़ा ऊँचा एक कोना था| यदि आप को छोटे शहरों के जीवन का अनुभव होगा तो निश्चित रूप से आप को इस प्रकार की दुकानों का स्मरण होगा| दीवार पर एक कपडा या चादर कुछ कीलों की मदद से खिंचा हुआ होता था, और नीचे की ज़मीन पर एक रंगीन बरसाती बिछी होती| छोटी पिनों, तारों और पत्थर के छोटे टुकड़ों की मदद से खिलौने दीवार और फर्श पर कुछ इस नायाब तरीके से सजाये होते कि उस प्रकार से आकर्षित करने वाली खिलौने की दुकान मैंने यहाँ तक कि महानगरों में भी नहीं देखी | उन दिनों जहाँ तक हमारी कल्पना जाती थी उन सभी प्रकार के खिलौने उस छोटी सी दुकान में मौजूद हुआ करते थे | जानवर, पंछी, छोटी-छोटी गाड़ियां, हेलीकाप्टर, गुड्डे-गुड़ियाँ, रसोई के छोटे छोटे सामान और अनेकों ऐसी चीजें जिनका उल्लेख करना निश्चित रूप से आसान नहीं होगा|

सड़क की इस दुकान को चलाने का दारोमदार जिस शख्स को जाता था उन्ही को हम बच्चे ‘मौलबी’ कहा करते थे| निश्चित रूप से उनका वास्तविक नाम मौलबी नहीं रहा होगा, पर इस पुकार नाम मौलबी के रहस्य से मैं बिलकुल भी अवगत नहीं हूँ| यूँ तो वे उम्र में हमसे बहुत ही बड़े थे पर उन दिनों हम मौलबी नाम से ही उनको सम्बोधित किया करते थे| अब सोचता हूँ तो लगता है कि कम से कम अपने उस पुकार नाम ‘मौलबी’ के साथ ‘चाचा’ शब्द के हक़दार वे जरूर थे|

बरहाल, मौलबी देखने में ६५-७० साल के लगते थे| सच कहूं तो उनकी उम्र का अंदाज़ा लगाना मेरे लिए आसान नहीं है, पर यदि मैं अपने अनुभवों और उनकी परिस्थिति का सामंजस्य बना कर सोचूँ तो वे ५० साल से ज्यादा के बिलकुल भी नहीं रहे होंगे | उम्र से ज्यादा दिखने का कारण शायद किसी संवेदनशील व्यक्ति को बताने की आवश्यक नहीं है |

दुबला पतला शरीर, गेहुंआ रंग और तकरीबन ५ फ़ीट और ६ या ७ इंच उचाई, कुछ इसी प्रकार की कद काठी थी उनकी | सिर पर मुसलमानी टोपी, पतला चेहरा, चिपके हुए गाल और छोटी छोटी धंसी हुई आंखे, आँखों पर धातु से बना गोल आकार का नज़र का चश्मा और चेहरे पर थोड़ी सी सफ़ेद रंग की कम सघन दाढ़ी| आम तौर पर वैसी दाढ़ी हाजी लोग रखा करते हैं (हाजी: हज होकर आये मुस्लिम समुदाय के लोग) पर उनकी स्थिति जो याद आती है मैं पूर्ण आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि वे कभी हज नहीं गए रहे होंगे |

वेश-भूषा की बात करें तो टांगों से चिपका पैजामा, कमर से थोड़ा नीचे तक का पूरी आस्तीन वाला कुर्ता जो कि ज़रूर कभी सफ़ेद रंग का रहा होगा पर अब मटमैला हो चला था, कुर्ते के ऊपर बिना आस्तीन वाली गाढ़े रंग की चुस्त सदरी (जैकेट)| पैरों में चमड़े की काली चप्पल हुआ करती थी| चप्पल नये तो बिल्कुल भी नहीं थे, पर बाकी के कपड़ों की तुलना में चप्पलों की हालत काफी दुरुस्त थी, और उसका एक कारण शायद बाजू की तीन चार दुकान छोड़ कर बैठने वाला मोची रहा होगा| दुकान पर ग्राहक न होने की स्थिति में दोनों को कई बार साथ-साथ देखने को मिलता था|

हालांकि मैंने उन्हें कभी पान खाते देखा नहीं था पर ज़बान और मुहं की लाली स्पष्ट दर्शाती थी कि वे पान ज़रूर खाते रहे होंगे| वैसे भी बनारस में रहने वाला यदि पान न खाये तो यह अपने आप में एक अचरज की ही बात होगी| थोड़ी भारी पर धीमी आवृति की आवाज़, जल्दी जल्दी बोलना, त्वरित प्रतिक्रिया और बस अपने काम से काम रखना यही उनके काम करने का कुछ विशेष अंदाज़ था| बेचते तो वे खिलौने थे और एक प्रकार से पूरा दिन बच्चों के बीच ही रहते पर कभी मैनें उन्हें हँसते-मुस्कुराते नहीं देखा था | निश्चित रूप से कुछ व्यक्तिगत वजह रही होगी |

उस तरफ से जब भी गुजरते निगाह मौलबी की दुकान पर खुद बखुद चली जाती| चूँकि वे खिलौने बहुत महंगे नहीं होते थे इसलिए यदा-कदा आग्रह करने पर पिताजी एक आध खिलौने खरीदने के लिए राजी भी हो जाया करते थे| इस प्रकार से सप्ताह-दस दिन पर कम से कम एक बार मौलबी की दुकान पर जाना जरूर होता था | कभी खुद के लिए कुछ खरीदने जाते या फिर मोहल्ले के किसी साथी के विशेष सलाहकार बनकर| खिलौने खरीदना तो निश्चित रूप से ही बहुत रोमांचक हुआ करता था पर उस दुकान पर महज खड़े रह कर उन भांति-भांति के रंग बिरंगे खिलौनों को निहारना भी कम रोमांचक नहीं होता था|

इस प्रकार से मौलबी भी बाल्यकाल का एक प्रमुख हिस्सा थे| बाल्यकाल अच्छा व्यतीत हो रहा था | यह शायद १९८० दशक का आखिरी साल रहा होगा, पिताजी का तबादला उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे शहर, गोरखपुर में हो गया| बचपना अपने आप में एक अनूठी अवस्था होता है, हर एक परिस्थिति उत्सव के जैसी प्रतीत होती है| हमारा सामान एक बड़ी गाड़ी में रख कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाने के लिए व्यवस्थित किया जा रहा था| हमे बस अपने-अपने बस्ते और किताब-कापियों को एक गत्ते में रखने की जिम्मेदारी दी गयी थी| थोड़ी उदासी थी पर मन उत्साहित भी था, नया शहर, नया घर, नया स्कूल और न जाने क्या क्या..| सच कहूँ तो उस दिन मौलबी का ख्याल बिलकुल भी नहीं आया|

हम अब दूसरे शहर में आ चुके थे, नया शहर नये लोग! साल १९९२ में एक बार फिर से पिता जी के साथ बनारस जाने का मौका मिला| शहर में दुबारा जाना अपने आप में अत्यंत रोमांचक था| मुझे अच्छी तरह से याद है लौटते समय मैंने मौलबी की दुकान से कुछ खिलौने ख़रीदे थे| शायद वो किशोरावस्था के प्रारम्भ का प्रभाव रहा होगा, मेरे अंदर शहर और मौलबी दोनों के प्रति कोई भावना नहीं थी| मेरे लिए वो खिलौने सबसे ज्यादा मत्वपूर्ण थे|

उसके बाद काफी समय तक बनारस जाने का अवसर नहीं मिला| ठीक से याद तो नहीं पर साल १९९८ या १९९९ में काफी समय के उपरांत एक बार फिर से किसी प्रवेश परीक्षा के लिए बनारस जाने को हुआ| इस समय तक गंगा जी के घाट और बाजार में घूमना ज्यादा आनंद का अनुभव देता था| निश्चित रूप से बाल्यकाल से किशोरावस्था में प्रवेश करने पर प्राथमिकताएं बदल जाती हैं| पर अचानक एक दिन सड़क के उस कोने पर निगाह गई, जहाँ मौलबी के खिलौनों कि दुकान हुआ करती थी, वो कोना खाली था!

अनौपचारिक रूप से पता करने पर मौलबी के आखिर वक़्त के बारे में कुछ जानने को मिला था| मौलबी एक दैनिक श्रमिक थे, और किसी भी दैनिक श्रमिक की आय और व्यापार उसके स्वास्थ्य के साथ जटिलता से जुड़ा होता है| लिहाजा उनके जीवन के आखिरी समय के बारे में अनुमान लगाना किसी के लिए भी बहुत कठिन नहीं होगा| दैनिक श्रमिक का जीवन तभी तक सामान्य दिखता है जब तक कोई बीमारी या विषम परिथिति दस्तक नहीं देती है| वे अस्पताल जाते तो हैं पर अधिकांशतः कभी लौट कर नहीं आते| शायद यह उनकी नहीं कहीं न कहीं हमारी और हमारी सरकारों की भी विफलता है| आज़ादी के ७३ वर्षों के बाद भी हमारे लिए मानव जीवन और संवेदनाओं का कोई विशेष मोल नहीं है|

परन्तु मैं अपनी इस कथा को यहीं पर विराम देना चाहूंगा| लिखने के लिए अभी भी बहुत कुछ है लेकिन शब्दों के खेल में संवेदनाएं कहीं विलुप्त न हो जाये इस लिए मैं यहीं पर लेखनी को विराम देता हूँ| और मेरा मानना है कि साहित्य में पाठक को अपनी संवेदनाओं के अनुसार चिंतन करने का अवसर अवश्य मिलना चाहिये…शेष आप और आप की संवेदनाओं पर छोड़ता हूँ|

पर हाँ एक आखिरी बात!… जब कभी अपने बेटे के लिये खिलौने खरीदने जाता हूँ या फिर किसी बच्चे को खिलौने खरीदते देखता हूँ तो मौलबी और उनकी दुकान का स्मरण पुनः जीवंत हो उठता है |

– आशीष त्रिपाठी
०९ मई २०२०
बेंगलुरु

SQL Query To Know Records Count in All The Tables of Any Database

Use below Sql Script to know number of records in all the tables of any database.
use WRITE_YOUR_DB_NAME_HERE

DECLARE @TOTAL_REC_COUNT INT
DECLARE @REC_COUNTER INT = 1
DECLARE @REC_COUNT INT = 0
DECLARE @TABLE_NAME nVARCHAR(200)
DECLARE @SQL_S NVARCHAR(500)

DECLARE @TABLE TABLE( ID INT IDENTITY(1,1), TABLE_NAME VARCHAR(200), RECOURD_COUNT INT)

INSERT INTO @TABLE
Select name , 0 from sys.tables

SELECT @TOTAL_REC_COUNT = COUNT(1) FROM @TABLE

WHILE @REC_COUNTER <= @TOTAL_REC_COUNT
BEGIN
SELECT @TABLE_NAME = TABLE_NAME FROM @TABLE WHERE ID = @REC_COUNTER
SET @SQL_S = 'SELECT @RC = COUNT(1) FROM ' + @TABLE_NAME
EXEC sp_executesql @SQL_S, N'@RC INT OUTPUT', @RC = @REC_COUNT output
UPDATE @TABLE SET RECOURD_COUNT = @REC_COUNT WHERE ID = @REC_COUNTER

SET @REC_COUNTER = @REC_COUNTER + 1
END

SELECT * FROM @TABLE